स्वर्गदूतों ने सूखी घास के बीच पालने में झाँका । यह उनके लिए एक परम रुचि की घटना थी । परमेश्वर मनुष्य बने यह आश्चर्यजनक था । परन्तु उसका इस प्रक्रिया से , इस उदेश्य के लिए तथा इस प्रकार की जगह पर मनुष्य बनना वास्तव में विस्मयकारी था ।
तीस वर्ष बीतने के बाद हमें वह अगली चीज़ बतायी जाती है जिसे स्वर्गदूत देखने की इच्छा रखते थे । हालांकि, नि:संदेह परमेश्वर का कोई कार्य , कोई शब्द तथा कोई इच्छा उनमें रुचि जगाने में असफल ना रही होगी । इन छुपे हुए, खामोश वर्षों के विषय में हज़ारों किताबें लिखी जा सकतीं हैं । उन तीस वर्षों की गतिविधियाँ हमारे लिए अज्ञात है । परन्तु स्वर्गदूत उसके जन्म के क्षण से लेकर यहुन्ना द्वारा उसको बप्तिस्मा दिए जाने के क्षण तक को विस्मय से देखते और सुनते रहे ।
फिर बदलाव का एक अगला बिंदु आता है – निर्जन स्थान में संघर्ष की घटना । स्वर्गदूत पाप और शैतान के विषय में जानते थे क्योंकि “अधर्म के बड़े रहस्य” की पूर्ण शुरुआत स्वर्ग में हुई थी , ना की पृथ्वी पर । इससे अधिक लूसीफर भी पृथ्वी पर अपने भटकने का हिसाब देने के लिए परमेश्वर के सिंहासन के समक्ष उपस्थित होने का बुलावा मिलने पर उस उच्च स्थान में समय समय पर अपनी उपस्तिथि दर्ज कराता है ।
मनुष्य के अदन की वाटिका में गिरने के तुरंत बाद (उत्पत्ति 3:24) कुछ करूबों की श्रेणी के स्वर्गदूतों ने वाटिका के फाटकों पर संतरी की ज़िम्मेदारी निभायी, वे वहाँ पर “जीवन के वृक्ष को” जाने वाले मार्ग की निगरानी करने को नियुक्त हुए थे । इसका तात्पर्य है कि मनुष्य के गिरने की घटना ऊपर तक पहुँच गई थी । इस खबर के बाद की एक नया संघर्ष जन्म लेने वाला है, स्वर्गदूतों की रुचि और गहरा गयी थी । एक दूसरा आदमी जो की अंतिम आदम है तमाम विपरीत परिस्थितियों में गिरे हुये लूसीफर पर विजयी होता जा रहा है । पवित्र जन शैतान से उस सुनसान निर्जन प्रदेश में तब अकेला मिलेगा जब की वह मृत्यु के द्वार तक उपवास कर चुका होगा, उसकी सारी शारीरिक सामर्थ खत्म हो चुकी होगी तथा उसके प्राण एक धागे से अटके होंगे । उस अदन के वन एवं घाटी से जहाँ की आदम गिरा था , यह नज़ारा एकदम अलग होने जा रहा था ।
यरीहों के पीछे , यार्दन के भीतर तक धंसा हुआ , समुद्र तल से काफी नीचे पर , परीक्षा का पहाड़ खड़ा था । पर्वतारोही पायेगा की उस चढ़ाई पर हर एक कदम चढ़ने के साथ द्रश्य बद से बदतर हो जाते थे । चारों ओर की वीरानी श्रापित भूमि के समान थी । पहाड़ स्वयं सूखा और गंजा था । वह एक अभिशप्त पहाड़ था । सूर्य से जले हुये मैदानी भाग से उसकी सीधी कड़ी चोटियाँ थी और दूसरी तरफ डूबे हुये सदोम के समुद्र का दलदली पानी था । वे उसको मृत सागर पुकारते थे, और यह नाम उसके अनुरूप था ।
युद्ध प्रारम्भ होता है । यह चरम अवस्था में उन्ही तीन प्रलोभनों के साथ , परन्तु एक अलग भेष में प्रस्तुत होता है जिन्होंने पहले हव्वा को और फिर आदम को जीता था –शरीर की अभिलाषा, आँख की अभिलाषा, तथा जीवन का घमंड । स्वर्गदूत पीछे ही ठहरे रहे। यह उनकी लड़ाई नहीं थी । उनके द्वारा इसमें कोई दखल नहीं दिया जाता था । परन्तु स्वर्गदूत कितने प्रसन्न होते थे जब शैतान बार बार हारता और अंत में द्रश्य से गायब हो गया । तब तक तो नहीं परन्तु अब, परमेश्वर थके हुये विजेता की सेवा के लिए स्वर्गदूतों को भेजता है ।
आखिरकार स्वर्गदूतों ने अपने स्वामी को सारी तकलीफों के अंतिम सिरे पर पा लिया : शारीरिक, नैतिक एवं आत्मिक। वह वहाँ पर अकेला , थका हुआ एवं कमज़ोर किन्तु विजयी लेटा हुआ था । क्या ऐसा हो सकता है ? क्या वो वहीँ था ? हाँ वह वहीँ था । मनुष्य का पुत्र , विजयी , महिमा एवं सम्मान का मुकुट पहिने हुये ।
“हैलो जिब्राएल “! निश्चय ही इसी प्रकार का कोई स्वागत शब्द उद्धारकर्ता के होठों से निकला होगा । जिन स्वर्गदूतों के नाम नहीं मालूम है उन्होंने उसकी सेवा की , संभवत :एक चमकदार स्वच्छ नदी से पीने का पानी दिया, या बिस्तर लगाया हो, या उसके सोने के दौरान तलवार लेकर उसकी पहरेदारी कर रहे थे । इसमें कोई संदेह नहीं की जब ये विशिष्ट स्वर्गदूत वापस पहुंचे होंगे तो दूसरे स्वर्दूतों के पास बहुत सारे प्रश्न होंगे । “परन्तु वहाँ पर क्या उसका ध्यान रखने के लिए कोई मनुष्य ना थे” ? उसके मित्र उसके परिवार के लोग कहाँ थे ? नहीं ! वहाँ पर कोई नहीं था ।
उसने वह युद्ध अकेला लड़ा , और वह विजयी हुआ ! और शैतान किसी अँधेरे कोने में बैठा हुआ कुढ़ता तथा इस बात को भली भांति जानता होगा कि आखिर में उसकी उसके जोड़ से मुलाक़ात हो गयी थी । और वह भयभीत था ।